बाल विकास की अवस्थाएं, विशेषताएं, महत्व एवं शिक्षा

 बाल विकास की मुख्य अवस्थाओं

विकास की अवस्थाएं, विशेषताएं, महत्व एवं शिक्षा :

(अ) शैशवावस्था:- बालक के जन्म के पश्चात् से पांच वर्ष की अवस्था शैशवावस्था कहलाती है। यह अवस्था बालक का निर्माण काल है। इसी में बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था में बालक का जितना अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है उतना ही अधिक उत्तम उसका विकास और जीवन होता है। जन्म के उपरांत नवजात शिशु के भार, अंगों और गतिविधियों में पांच वर्ष की अवस्था तक परिवर्तन दिखाई देते है। विकास के साथ-साथ इनमें स्थायित्व आने लगता है।

शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएं:

शैशवावस्था की विशेषताएं इस प्रकार हैं

1-शारीरिक विकास में तीव्रता शैशवावस्था के प्रथम तीन वर्षों में शिशु का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। तीन वर्ष के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है। उसकी इन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, आन्तरिक अंगों, मांसपेशियों आदि का कमिक विकास होता है।

2-मानसिक कियाओं की तीव्रता शिशु की मानसिक क्रियाओं जैसे-ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियां कार्य करने लगती है।

3- सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है और वह अनेक आवश्यक बातों को सीख लेता है।

4-कल्पना की सजीवता चार वर्ष के बालक के सम्बंध में एक अति महत्वपूर्ण बात है उसकी कल्पना की सजीवता वह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं कर पाता है। फलस्वरूप, वह असत्यभाषी जान पड़ता है। वह अपने शोध प्रबंधन, कल्पनाएं करने लगता है।

5-दूसरों पर निर्भरता - जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है। उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है।

5-आत्म प्रेम की भावना – शिशु अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। पर साथ ही वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा और किसी को न मिले यदि और किसी के प्रति प्रेम व्यक्त किया जाता है तो उसे उससे ईर्ष्या हो जाती है।

6-नैतिकता का विकास शिशु में अच्छी और बुरी उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनमें उसको आनन्द आता है।

7-मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार शिशु के अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृत्तियां होती हैं। यदि उसे भूख लगती है, तो उसे जो भी वस्तु मिलती है, उसी को अपने मुंह में रख लेता है।

8-सामाजिक भावना का विकास इस अवस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है।

9-छोटे भाईयों, बहिनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 6 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपनी वस्तुओं में दूसरों को साझीदार बनाता है।

10-दूसरे बालकों में रूचि या अरूचि शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रूचि या अरूचि उत्पन्न हो जाती है। बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रूचि व्यक्त करने लगता है। आरंभ में इस रूचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, पर शीघ्र ही यह अधिक निश्चित रूप धारण कर लेती है और रूचि एवं अरूचि के रूप में प्रकट होने लगती है।

11-संवेगों का प्रदर्शन - दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है।

बाल-मनोवैज्ञानिकों ने शिशु के मुख्य रूप से चार संवेग माने हैं- भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा।

काम–प्रवृत्ति – बाल–मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शिशु में काम- प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है, पर वयस्कों के समान वह उसको व्यक्त नहीं कर पाता है। अपनी माता का स्तनपान करना और यौनागों पर हाथ रखना बालक की काम प्रवृत्ति के सूचक हैं।

दोहराने की प्रवृत्ति – शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। उसमें शब्दों और गतियों को दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है।

जिज्ञासा की प्रवृत्ति – शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति का बाहुल्य होता है। वह अपने खिलौने का विभिन्न प्रकार से प्रयोग करता है। वह उसको फर्श पर फेंक सकता है। वह उसके भागों को अलग-अलग कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न बातों और वस्तुओं के बारे में "क्यों" और "कैसे" के प्रश्न पूछता है।

अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति शिशु में अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन आदि के कार्यों और व्यवहार का अनुकरण करता है।

अकेले व साथ खेलने की प्रवृत्ति शिशु में पहले अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है "बहुत ही छोटा शिशु खेलता है। अन्त में वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में महान् आनन्द का अनुभव करता है"।

शैशवावस्था का महत्व :

इस अवस्था में शिशु पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर रहता है उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। व्यक्ति को जो कुछ बनना होता है वह आरंभ के चार-पांच वर्षों में ही बन जाता है। व्यक्ति का जितना मानसिक विकास होता है। उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है। शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की अन्य किसी अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है यह अवस्था ही वह आधार है, जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। अतः इस अवस्था में शिशु को जितना उत्तम निर्देशन दिया जायेगा उसका उतना ही उत्तम विकास होगा। कई मनोवैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं के संदर्भ में अनेकों विस्तृत अध्ययन किये और निष्कर्ष निकाला कि सब अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

शैशवावस्था के महत्व के सम्बंध में कुछ विद्वानों ने अपने विचार निम्नवत प्रस्तुत किये।

ऐडलर के अनुसार बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में इसका क्या स्थान है"।

गुडएनफ "व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है"।

शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप

1-शिशु अपने विकास के लिए शान्त, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण चाहता है। अतः घर और विद्यालय में उसे इस प्रकार का वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए।

2-शिशु अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। माता-पिता और शिक्षक को उसे डांटना या पीटना नहीं चाहिए। इसके विपरीत, उन्हें उसके प्रति सदैव प्रेम, शिष्टता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए।

3-बालक सबके विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त करना चाहता है। माता-पिता और शिक्षक को उसके प्रश्नों के उत्तर देकर उसकी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए।

4-शिशु कल्पना के जगत में विचरण करता है। अतः उसे ऐसे बालक को ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए जो उसे वास्तविकता के निकट लाये।

5-आत्म–निर्भरता से शिशु को स्वयं सीखने, काम करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है। 12/317 तंत्रता प्रदान करके आत्म निर्भर बनने का अवसर दिया जाना चाहिए।

6-शिशु में अनेक निहित गुण होते हैं। अतः उसे इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे उसमें इन गुणों का विकास हो।

7-शैशवावस्था के अन्तिम भाग में शिशु दूसरे बालकों के साथ मिलना-जुलना और खेलना पसन्द करता है। उसे इन बातों का अवसर दिया जाना चाहिए, ताकि उसमें सामाजिक भावना का विकास हो ।

8-शिशु में आत्म-प्रदर्शन की भावना होती है। अतः उसे ऐसे कार्य करने के अवसर दिये जाने चाहिए, जिसके द्वारा वह अपनी इस भावना को व्यक्त कर सके।

10-शिशु में मानसिक क्रियाओं की तीव्रता होती है अतः उसे सोचने-विचारने के अधिक से अधिक अवसर दिये जाने चाहिए।

11-शिशु के माता-पिता और शिक्षक को इस सारगर्भित वाक्य को सदैव स्मरण रखना चाहिए। अतः उसे उसमें सत्य बोलने, बड़ों का आदर करने, समय पर काम करने और इसी प्रकार की अन्य अच्छी आदतों का निर्माण करना चाहिए।

12-शिशु के व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृत्तियां होती हैं। अतः उनका दमन न करके सम्भव विधियों से प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

13-बालक कुछ मूल प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है, जो उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। अतः उसे उनके अनुसार कार्य करके शिक्षा प्राप्त करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।

14-शिशु को खेल द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। इसका कारण बताते हुए स्ट्रेंग का कहना है कि "शिशु अपने और अपने संसार के बारे में अधिकांश बातें खेल द्वारा सीखता है"।

15-शिशु की शिक्षा में कहानियों और सचित्र पुस्तकों का विशिष्ट स्थान होना चाहिए। "पांच वर्ष का शिशु कहानी सुनते समय उससे संबंधित चित्रों को पुस्तक में देखना पसन्द करता है"।

16-शिशु की ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। "बालक के हाथ, पैर और नेत्र उसके प्रारंभिक शिक्षक हैं। इन्हीं के द्वारा वह पांच वर्ष में ही पहचान सकता है, सोच सकता है और याद कर सकता है।

बाल्यावस्था :

बाल्यावस्था, वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है। फायड यद्यपि यह मानते हैं कि बालक का विकास पांच वर्ष की आयु तक हो जाता है, लेकिन बाल्यावस्था विकास की प्रक्रिया को गति प्राप्त करती है और एक परिपक्व व्यक्ति के निर्माण की ओर अग्रसर होती है।

शैशवावस्था के बाद बाल्यावास्था का आरम्भ होता है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है। बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतों, व्यवहार, रूचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है। इस अवस्था में बालक में अनेक अनोखे परिवर्तन होते हैं। 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव बहुत उग्र होता है। 7 वर्ष की आयु में वह उदासीन होता है और अकेले रहना पसन्द करता है। 8 वर्ष की आयु में उसमें अन्य बालकों में सामाजिक सम्बंध स्थापित करने की भावना बहुत प्रबल होती है। 0 से 12 वर्ष तक की आयु में विद्यालय का उसके लिए कोई आकर्षण नहीं रहता है। वह कोई नियमित कार्य करके, कोई महान और रोमांचकारी कार्य करना चाहता है।

बाल्यावस्था की विशेषताऐ

1-विकास में स्थिरता :- 6 से 7 वर्ष की आयु के बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती हैं। फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व और वह स्वयं वयस्क सा जान पड़ता है।

2-मानसिक योग्यताओं में वृद्धि : बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्त्यिों में वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है।

3-जिज्ञासा की प्रबलता :- बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है।

4-वास्तविक ज्ञान का विकास :- इस अवस्था में बालक, शैशवावस्था के काल्पनिक जगत का परित्याग करके वास्तविक जगत में प्रवेश करता है। वह उसकी प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है।

5-रचनात्मक कार्यों में रूचि :- बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनन्द आता है। वह साधारणतः घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है, जैसे- बगीचे में काम करना या औजारों से लकड़ी की वस्तुएँ बनाना।

6-सहयोग की भावना :- बालक विद्यालय के छात्रों और अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है।

7-अतः उसमें अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे- सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता आदि।

8-नैतिक गुणों का विकास :- इस अवस्था के आरम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की भावना का विकास होने लगता है।

9-बर्हिमुखी व्यक्तित्व :- शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है। बाल्यावस्था में उसका व्यक्तित्व बर्हिमुखी हो जाता है, क्योंकि बाह्य जगत में उसकी रूचि उत्पन्न हो जाती है।

10-संवेगों पर नियंत्रण:- बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं में अन्तर करना जान जाता है। वह उन भावनाओं का दमन करता है, जिनको उसके माता-पिता और बड़े लोग पसन्द नहीं करते हैं।

11-संग्रहीकरण की प्रवृत्ति बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा पाई जाती है। बालक विशेष रूप से कांच की गोलियों टिकटों, मशीनों के भागों और पत्थरों के टुकड़ों का संचय करते हैं।

12-बालिकाओं में चित्रों, खिलौनों, गुड़ियों और कपड़ों के टुकड़ों संग्रह करने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

13-बालकों में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है। विद्यालय से भागने और आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती हैं।

14-काम प्रवृत्ति :- बालक में काम प्रवृत्ति की न्यूनता होती है। वह अपना समय मिलने-जुलने खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने में व्यतीत करता है।

15-सामूहिक प्रवृत्ति :- बालक की सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करने का प्रयास करता है। बालक की सामूहिक खेलों में अत्याधिक रूचि होती है। वह 6 या 7 वर्ष की आयु में छोटे समूहों में खेलता है।

16-रूचियों में परिवर्तन :- बालक की रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वे स्थायी रूप धारण न करके वातावरण के साथ परिवर्तित होती रहती हैं।

बाल्यावस्था का महत्व :

बाल्यावस्था का काल 6 से 12 वर्ष माना जाता है। इस अवस्था में बालकों तथा बालिकाओं के कद, भार में, उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। इस अवस्था में हड्डियों में मजबूती तथा दृढ़ता आती है, दाँतों में स्थायीत्व आने लगता है। बाल्यावस्था में मानसिक विकास भी तीव्र होती है। वह अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए अनेकों प्रश्न करता है उसकी रूचि विस्तार पाने लगती है। सूक्ष्म चिंतन का आरम्भ हो जाता है। बाल्यावस्था में बालक विद्यालय में प्रवेश ले चुका होता है। परिवार के अलावा अन्य लोगों के साथ उसकी सामाजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इस अवस्था में विषमलिंगीय आकर्षण दिखाई देने लगता है। धीरे-धीरे बालकों का शब्दकोश भी विस्तृत हो सकता है। इस अवस्था में बालकों में आत्मनिर्भरता की भावना विकसित होने लगती है। उनकी आदतों रूचियों मनोवृत्ति तथा रहन-सहन आदि में पर्याप्त भिन्नता स्पष्ट होने लगती है।

 किशोरावस्था

बाल्यावस्था के समापन अर्थात् 13 वर्ष की आयु से किशोरावस्था आरंभ होती है। इस अवस्था को तूफान एवं संवेगों की अवस्था कहा गया है। 11-12 वर्ष की आयु से बालक की नसों में ज्यार उठना आरम्भ होता है, इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है।

किशोरावस्था की मुख्य विशेषताए

1-मानव जीवन के विकास की प्रक्रिया में किशोरावस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। बाल्यावस्था समाप्त होती है और किशोरावस्था प्रारम्भ होती है। यह अवस्था युवावस्था अथवा परिपक्वावस्था तक रहती है। यह सतत् प्रक्रिया है। इसे बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य का सन्धि काल कहते हैं।

2-स्वतंत्रता की भावना किशोर में शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता की प्रबल भावना होती है। वह बड़ों के आदेशों अन्धविश्वासों के बन्धनों में न बंधकर स्वतंत्र जीवन व्यतीत करना चाहता है। अतः यदि उस पर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाया जाता है, तो उसमें विद्रोह की भावना विकसित होती है।

3-काम भावना में परिपक्वता कामेन्द्रियों की परिपक्वता और कामशक्ति का विकास किशोरावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। इस अवस्था के पूर्व काल में बालकों और बालिकाओं में विषम लिंगों के प्रति आकर्षण होता है।

4-समूह का महत्व - किशोर जिस समूह का सदस्य होता है उसको वह अपने परिवार और विद्यालय से अधिक महत्वपूर्ण समझता है।

5-रूचियों में परिवर्तन एवं स्थायीत्व : 15 वर्ष की आयु तक किशोरों की रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है पर उसके बाद उनकी रूचियों में स्थिरता आ जाती है। बालकों को खेलकूद और व्यायाम में विशेष रूचि होती है। उनके विपरीत बालिकाओं में बढ़ाई-बुनाई, नृत्य और संगीत के प्रति विशेष आकर्षण होता है।

6-समाजसेवा की भावना किशोर में समाज सेवा की अति तीव्र भावना होती है। किशोरावस्था के आरंभ में बालकों को धर्म और ईश्वर में आस्था नहीं होती है पर धीरे-धीरे उनमें धर्म में विश्वास उत्पन्न हो जाता है और वे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने लगते हैं।

7-जीवन दर्शन का निर्माण किशोरावस्था से पूर्व बालक अच्छी और बुरी सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में नाना प्रकार के प्रश्न पूछता है। किशोर होने पर वह स्वयं इन बातों पर विचार करने लगता है और फलस्वरूप अपने जीवन दर्शन का निर्माण करता है। किशोरावस्था में बालक में अपने जीवन दर्शन नये अनुभवों की इच्छा, निराशा, असफलता प्रेम के अभाव आदि के कारण अपराध प्रवृत्ति का विकास होता है।

8-व्यवसाय के प्रति चिन्तित किशोर में महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने और प्रौढ़ों के समान निश्चित स्थिति प्राप्त करने की अत्यधिक अभिलाषा होती है। किशोरावस्था में बालक अपने भावी व्यवसाय को चुनने के लिए चिन्तित रहता है।

किशोरावस्था का महत्व :

 ,1-विकासात्मक विशेषता किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। इस काल में किशोर के शरीर में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, जैसे- भार और लम्बाई में तीव्र वृद्धि, मांसपेशियों और शारीरिक ढ़ाँचे में दृढ़ता, किशोर में दाढ़ी और मूंछ की रोमावलियों एवं किशोरियों में प्रथम मासिक स्राव के दर्शन आदि।

2-कल्पना की बाहुल्यता किशोर के मस्तिष्क का लगभग सभी दिशाओं में विकास होता है। उसमें विशेष रूप से अग्रलिखित मानसिक गुण पाये जाते हैं कल्पना और दिवास्वप्नों की बहुलता, बुद्धि का अधिकतम विकास, सोचने-समझने और तर्क करने की शक्ति में वृद्धि विरोधी मानसिक दशायें। किसी समूह का सदस्य होते हुए भी किशोर केवल एक या दो बालकों से घनिष्ठ सम्बंध रखता है, जो उसके परम मित्र होते हैं।

3-संवेगों में अस्थिरता : किशोर में आवेगों और संवेगों की बहुत प्रबलता होती है। यही कारण है कि वह विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है।

4-किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन कहा है, क्योंकि किशोर बहुत कुछ शिशु के समान होता है। उसके व्यवहार में इतनी उद्विग्नता आ जाती है कि वह शिशु के समान अन्य व्यक्तियों और वातावरणसे समायोजन नहीं कर पाता है।

5-किशोरावस्था जीवन का वह समय है, जहां से एक अपरिपक्व व्यक्ति का शारीरिक व मानसिक विकास एक चरम सीमा की ओर अग्रसर होता है। शारीरिक रूप से एक बालक किशोर बनता है जब उसमें वय सन्धि अवस्था प्रारंभ होती है और उसमें सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता प्रारंभ हो जाती है। यह अवस्था 12-13 से 18 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। इस अवस्था के आरंभ होने की आयु लिंग, प्रजाति, जलवायु संस्कृति एवं स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। भारत में यह अवस्था 12 वर्ष से ही आरम्भ मानी जाती है। किशोरावस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इस समय किशोर के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं। स्टेनले हॉल ने कहा है कि "किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।"

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