विकास का अर्थ परिभाषा एवं उसके पक्ष

 विकास का अर्थ परिभाषा एवं उसके पक्ष -

विकास एक सार्वभौतिक प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर जीवन पर्यन्त तक अविराम गति से चलती रहती है। विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता वरन् इसके अन्तर्गत वे सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेदनात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भावस्था से मृत्यु पर्यन्त तक निरन्तर चलते रहते हैं।

हरलॉक (Hurlock) ने विकास को परिभाषित करते हुए कहा है कि "विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह 'व्यवस्थित' तथा समनुगत' परिवर्तन है जिसमें कि प्रौढावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषतायें व योग्यतायें प्रकट होती है।"

हरलॉक की परिभाषा के अनुसार विकास व्यवस्थित तथा समनुगत परिवर्तन है अर्थात एक पक्ष में न होकर सभी पक्षों में समान व व्यवस्थित परिवर्तन विकास की सही रूप में व्याख्या करते हैं। यह परिवर्तन मृत्यु पर्यन्त तक लगातार या निरन्तर चलते रहते हैं। विकास के अन्तर्गत कई पक्ष सम्मिलित है जो इस प्रकार हैं

1. शारीरिक विकास

2. मानसिक विकास

3. सामाजिक विकास

4-सृजनात्मक विकास

5-शारीरिक विकास एवं गामक विकास.

6- क्रियात्मक विकास

7- संवेगात्मक विकास

8. नैतिक विकास

9. सौदर्य विकास

शारीरिक विकास से अभिप्राय बालक की शारीरिक संरचना एवं गठन में होने वाला परिवर्तन है।

जिसके अन्तर्गत शारीरिक भार, लम्बाई, हड्डियों, दाँत इत्यादि में होने वाले विकास सम्मिलित है। गामक विकास शारीरिक विकास से जुड़ा प्रत्यय है जिसके अन्तर्गत मॉसपेशियों एवं हड्डियों की सक्षमता के साथ उन पर नियंत्रण सम्मिलित है। इसी के साथ विभिन्न क्रियाओं को करने के कौशलों का विकास भी इसी के अन्तर्गत माना है जैसे चलना, कूदना, सीढ़ी चढ़ना, भोजन करना, कपड़े पहनना इत्यादि । गामक कौशलों के विकास के लिए शारीरिक विकास सही रूप में होना आवश्यक है। शारीरिक विकास के प्रमुख पक्ष इस प्रकार

(1) शरीर रचना :शारीरिक विकास की प्रक्रिया में अनेक अन्तरिक या बाहय अंगों तथा मॉसपेशियों का विकास होता है।

परिपक्वता की विभिन्न अवस्थाओं में अभिवृद्धि की गति में अंतर होता है। शरीर की रचना स्नायु प्रणाली, श्वसन प्रणाली, पाचन संस्थान आदि की अभिवृद्धि तथा परिपक्वता एक दूसरे से सम्बन्धित 

सामान्य शरीरिक विकास - शारीरिक विकास सामान्यतः एक सा होना चाहिए। मानसिक विकास से इसका निकट का सम्बन्ध है। यह मूख्यतः चार क्षेत्रों में पाया जाता है -

(अ) स्नायु प्रणाली (ब) मॉस पेशियों (स) इन्ड्रोसन ग्रन्थियाँ (द) शरीर का आकार ।

भिन्न शारीरिक विकास शारीरिक विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न रूप से होता है। यह भिन्नता शरीर के कद रूप में पाई जाती है। इन्ड्रोसीन ग्रन्थियों के ठीक से कार्य न करने का सीधा प्रभाव शरीर की रचना कद, आदि पर पड़ता है।

अभिवृद्धि चक्र  - अभिवृद्धि का चक्र सदैव किसी एक नियम से नहीं चलता। की गति तेज होती है और किसी वर्ष कम

(2) शरीर का कद :शरीर के आकार से हमारा अभिप्राय ऊंचाई तथा भार से है। ये दोनों मिलकर विकास को निश्चित स्वरूप प्रदान करते हैं।

कद जन्म के समय बालक की लंबाई लगभग 20 इंच होती है। लड़कों की लम्बाई लड़कियों की अपेक्षा, जन्म के समय आधा इंच अधिक होती है। परिपक्वता आने तक बालक की ऊंचाई की गति में धीमापन आ जाता है। 12 वर्ष की अवस्था में सामान्य बालक 55 इंच लंबा हो जाता है। 10-14 वर्ष की आयु में लड़कियों का शारीरिक विकास तेजी से होता है। 21 वर्ष में लड़कों की ऊचाई अधिकतम सीमा तक बढ़ जाती है। बालकों की ऊंचाई के निर्धारित में वंशक्रम प्रजाति, सामाजिक आर्थिक स्थिति तथा रहन-सहन का प्रभाव पड़ता है।

(3) भार :जन्म के समय बालक का भार 5 से 8 पौंड तक होता है। पहले वर्ष के अन्त में बालक का भार जन्म के भार से पांच गुना अधिक होता है। परिपक्ता आने पर बालक का भार सामान्यतः 70 से 90 पौण्ड तक होता है। बालक का भार उसके शरीर की प्रकृति पर निर्भर करता है। तीन प्रकार के आकार होते हैं - (अ) मोटे (ब) लंबे (स) सामान्य शरीर का भार तीनों की प्रकृति पर निर्भर करता है।

(4) शरीर के आकार में भिन्नता :बालक जन्म से ही शरीर के आकार की भिन्नता लिये होता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसमें यह भिन्नता अधिक प्रकट होने लगती है। जन्म का भार विकास के वर्षों में आनुपातिक रूप धारण करता है।

(5) शारीरिक अनुपात :जन्म के समय शरीर, प्रौढ़ शरीर के अनुपात में बहुत अंशों में भिन्न होता है। भुजाओं तथा टांगों में सर्वाधिक परिवर्तन तथा अनुपात पाया जाता है। शरीर का यह अनुपात इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं।

(i) सिर - जन्म के बाद सिर आनुपातिक रूप से बढ़ता है। जन्म से परिपक्वता तक बालक के सिर की लम्बाई दुगुनी हो जाती है। सिर का क्षेत्र पांच वर्ष की अवस्था में 21 प्रतिशत से कम हो जाता है। 10 वर्ष में सिर, प्रौढ़ सिर का 95 प्रतिशत हो जाता है। सिर की लंबाई तथा चौड़ाई का अनुपात लड़के-लड़कियों के समान पाया जाता है।

(ii) चेहरा - आठ वर्ष की आयु तक चेहरे का ढाँचा जन्म की तुलना में बहुत बड़ा हो जाता है। परिपक्वता तथा स्थायी दांत निकलते रहते हैं और इसी प्रक्रिया में ठोढ़ी जबड़ा, मुंह, नाक तथा इसके आन्तरिक अंग तुलनात्मक रूप से विकसित होते हैं। मस्तिक का विकास द्रुतगति से होता है। आयु के विकास के साथ साथ माथा चौड़ा होता जाता है, होंठ भर जाते हैं।

(iii) धड़ - हाथों तथा अंगों के विकास से ही उसके धड़ का अनुपात व्यक्त होता है। धड़ के विकसित होते समय छाती तथा गुर्दों की हड्डियों का भी समय होता है।

(iv) भुजायें तथा टांगे नवजात के हाथ पैर, अंगुलियाँ छोटी होती है, 14-16 वर्षों तक इनका विकास पूर्ण हो जाता है। 14-16 वर्ष की आयु तक भुजाओं का विकास होता रहता है बालक की लम्बाई तथा पैरों के आकार में अनुपात रहता है।

(v) हड्डियाँ - बालक की हड्डियॉ, प्रौढ़ से छोटी एवं कोमल होती हैं। धीरे-धीरे उनके आकार में परिवर्तन होता है और अनेक नई हड्डियों का विकास होता है। जन्म के समय शिशु में 270 हड्डियाँ होती है। पूर्णता आने पर उसमें 350 हड्डियॉ हो जाती हैं। फिर कुछ हड्डियाँ समाप्त हो जाती हैं और पूर्ण परिपक्व अवस्था में इनकी संख्या 206 रह जाती है।

(vi) मॉसपेशियाँ तथा वसा- आरंभ से वसा तन्तुओं की वृद्धि मांसपेशियों के तन्तुओं से अधिक तीव्र होती है। शरीर का भार मांसपेशियों द्वारा विकसित होता है। बाल्यावस्था में मांसपेशियों में जल अधिक होता है। धीरे-धीरे जल की मात्रा कम होने लगती है और ठोस तन्तुओं का विकास होने लगता है, उसमें दृढता आने लगती है। वसा युक्त पदार्थों का अधिक सेवन करने से चर्बी बढ़ने लगती है।

(vii) दांत - बच्चों में अस्थायी तथा स्थायी दांत पाये जाते हैं। अस्थायी दांतों की संख्या 

30 तथा स्थायी दोतों की संख्या 32 होती है। अस्थायी दांत तीसरे मास से लेकर छठे मास तक अवश्य आ जाते हैं। पांच-छ: वर्ष तक ये दांत आ जाते हैं। अस्थायी दांत के गिर जाने पर स्थायी दांत उनका स्थान ले लेते हैं। 25 वर्ष की अवस्था तक स्थायी दांत निकलते रहते है।

(6) आन्तरिक अवयव -

शरीर के आन्तरिक अवयवों का विकास भी अनेक रूपों में होता है। यह विकास (अ) रक्त संचार, (ब) पाचन संस्थान, तथा (स ) श्वसन प्रणाली में होता है। बचपन में पाचन अंग कोमल होते हैं। प्रोढावस्था में वे कठोर हो जाते हैं। स्नायु संस्थान का आकार भी आयु के विकास के साथ-साथ होता है। आन्तरिक विकास के अंतर्गत स्नायु मण्डल का संगठन, कार्य, चेतना तथा गामक क्रियाओं का संतुलन, श्वांस प्रणाली, गुदा तथा मूत्राशय का विकास भी होता है। मस्तिष्क का विकास भी आन्तरिक अवयवों के विकास के अंतर्गत ही होता है।

शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक -

1-स्वास्थ विकास का निवास की उत्तम दशाओं से घनिष्ठ संबंध है। उचित या अनुचित प्रकाश से आयोजित मनोरंजन और विश्राम, अपौष्टिक भोजन कम हवादार निवास स्थान एवं दोषपूर्ण वंशानुक्रम के समान तत्व स्वस्थ विकास में बाधक होते हैं। कारकों में से अधिक महत्वपूर्ण निम्नवत है :

2-वातावरण बालक के स्वभाविक विकास में वातावरण के तत्व सहायक या बाधक होते हैं। इस प्रकार के कुछ मुख्य तत्व हैं - शुद्ध वायु, पर्याप्त धूप और स्वच्छता। तंग गलियों और बन्द मकानों में रहने वाले बालक किसी ने किसी रोग के शिकार बनकर अपने स्वास्थ्य को खो देते हैं। यदि बालक का शरीर पहनने के वस्त्र रहने का स्थान, खाने का भोजन आदि स्वच्छ है तो, उसका शारीरिक विकास द्रुत गति से होता चला जाता है।

iii) पौष्टिक भोजन पौष्टिक भोजन, थकान का सबल शत्रु और शारीरिक विकास का परम मित्र है। अतः बालक के उत्तम शारीरिक विकास के लिए उसे पौष्टिक भोजन दिया जाना आवश्यक है।

v) वंशानुक्रम - माता पिता के स्वास्थ और शारीरिक रचना का प्रभाव उनके बच्चों पर भी पड़ता हैं। यदि वे रोगी और निर्बल हैं तो उनके बच्चे भी वैसे ही होते हैं। स्वस्थ माता-पिता की संतान का ही स्वस्थ शारीरिक विकास होता है।

iv) नियमित दिनचर्या नियमित दिनचर्या उत्तम स्वास्थ्य की आधारशिला है। बालक के खाने, सोने, खेलने, पढ़ाने आदि का समय निश्चित होना चाहिए। इन सब कार्यों के नियमित समय पर होने से उसके स्वस्थ विकास में बहुत ही कम बाधायें आती हैं।

निद्रा व विश्राम – शरीर के स्वस्थ विकास के लिए निद्रा और विश्राम अनिवार्य है। शिशु के लिए 12 घण्टे बाल्यावस्था और किशोरावस्था में क्रमशः लगभग 10 और 8 घण्टे की निद्रा पर्याप्त होती है। बालक को इतना विश्राम मिलना आवश्यक है, क्योकि थकान उसके विकास में बाधक सिद्ध होती है।

vi) प्रेम बालक के उचित शारीरिक विकास का आधार प्रेम है। यदि उसे अपने माता-पिता का प्रेम नहीं मिलता है, तो वह दुःखी रहने लगता है यदि उसके माता-पिता की अल्पायु में मृत्यु हो जाती है, तो उसे असहय कष्टों को सामना करना पड़ता है उसके शरीर का विकास हो पाना असम्भव हो जाता है।

vii) सुरक्षा

शिशु या बालक के सम्यक् विकास के लिए उसमें सुरक्षा की भावना होना अति आवश्यक है। इस सम्भावना के अभाव में वह भय का अनुभव करने लगता है और आत्म-विश्वास खो बैठता है। ये दोनों बातें उसके विकास को अवरूद्ध कर देती है।

viii) खेल या व्यायाम शारीरिक विकास के लिए खेल और व्यायाम के प्रति विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। छोटा शिशु पलंग पर पड़ा पड़ा ही अपने हाथें और पैरों को चलाकर पर्याप्त

व्यायाम कर लेता है, पर बालकों और किशोरों के लिए खुली हवा में खेल और व्यायाम की उचित व्यवस्था की जाना आवश्यक है।

ix ) अन्य कारक शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ अन्य कारक है (1) रोग या दुर्घटना के कारण शरीर में उत्पन्न होने वाली विकृति या अयोग्यता (2) अच्छी और खराब जलवायु (3) दोषपूर्ण सामाजिक परम्पराएँ, जैसे- बाल-विवाह ( 4 ) गर्भिणी माता का स्वास्थ्य (5) परिवार का रहन-सहन और आर्थिक स्थिति।

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